॥ श्री व्यंकटेश स्तोत्र॥
॥ श्री व्यंकटेश स्तोत्र॥
श्री गणेशाय नम: | श्री व्यंकटशाय नम: ||ॐ नमो जी हेरंबा |
सकळादि तू प्रारंभा | आठवूनी तुझी स्वरूपशोभा | वंदन भावे करीतसे || १ ||
नमन माझे हंसवाहिनी | वाग्वरदे विलासिनी | ग्रंथ वदावया निरुपणी | भावार्थखाणी जयामाजी || २ ||
नमन माझे गुरुवर्या | प्रकाशरूपा तू स्वामिया | स्फूर्ति द्यावी ग्रंथ वदावया | जेणे श्रोतया सुख वाटे || ३ ||
नमन माझे संतसज्जना | आणि योगिया मुनिजना | सकळ श्रोतया साधुजना | नमन माझे साष्टांगी || ४ ||
ग्रंथ ऐका प्रार्थनाशतक | महादोषांसी दाहक | तोषुनिया वैकुंठनायक | मनोरथ पूर्ण करील || ५ ||
जयजयाजी व्यंकटरमणा | दयासागरा परिपूर्णा | परंज्योती प्रकाशगहना | करितो प्रार्थना श्रवण कीजे || ६ ||
जननीपरी त्वां पाळिले | पितयापरी त्वां सांभाळिले | सकळ संकटांपासुनि रक्षिले | पूर्ण दिधले प्रेमसुख || ७ ||
हे अलोलिक जरी मानावे | तरी जग हे सृजिले आघवे | जनक जननीपण स्वभावें | सहज आले अंगासी || ८ ||
दीननाथा प्रेमासाठी | भक्त रक्षिले संकटी | प्रेम दिधले अपूर्व गोष्टी | भजनासाठी भक्तांच्या || ९ ||
आता परिसावी विज्ञापना | कृपाळुवा लक्ष्मीरमणा | मज घालोनि गर्भाधाना | अलोलिक रचना दाखविली || १० ||
तुज न जाणता झालो कष्टी | आता दृढ तुझे पायी घातली मिठी | कृपाळुवा जगजेठी | अपराध पोटी घाली माझे || ११ ||
माझिया अपराधांच्या राशी | भेदोनी गेल्या गगनासी | दयावंता हृषीकेशी | आपुल्या ब्रीदासी सत्य करी || १२ ||
पुत्राचे सहस्र अपराध | माता काय मानी तयाचा खेद | तेवी तू कृपाळू गोविंद | मायबाप मजलागी || १३ ||
उडदांमाजी काळेगोरे | काय निवडावे निवडणारे | कुचलिया वृक्षांची फळे | मधुर कोठोनी असतील || १४ ||
अराटीलागी मृदुता | कोठोनी असेल कृपावंता | पाषाणासी गुल्मलता | कैशियापरी फुटतील || १५ ||
आपादमस्तकावरी अन्यायी | परी तुझे पदरी पडिलो पाही | आता रक्षण नाना उपायी | करणे तुज उचित || १६ ||
समर्थांचे घरीचे श्र्वान | त्यासी सर्वही देती मान | तैसा तुझा म्हणवितो दीन | हा अपमान कवणाचा || १७ ||
लक्ष्मी तुझे पायांतळी | आम्ही भिक्षेसी घालोनी झोळी | येणे तुझी ब्रीदावळी | कैसी राहील गोविंदा || १८ ||
कुबेर तुझा भांडारी | आम्हां फिरविसी दारोदारी | यात पुरुषार्थ मुरारी | काय तुजला पै आला || १९ ||
द्रौपदीसी वस्त्रे अनंता | देत होतासी भाग्यवंता | आम्हांलागी कृपणता | कोठोनी आणिली गोविंदा || २० ||
मावेची करुनी द्रौपदी सती | अन्ने पुरविली मध्यराती | ऋषीश्र्वरांच्या बैसल्या पंक्ती | तृप्त केल्या क्षणमात्रे || २१ ||
अन्नासाठी दाही दिशा | आम्हां फिरविसी जगदीशा | कृपाळुवा परमपुरुषा | करुणा कैशी तुज न ये || २२ ||
अंगीकारी या शिरोमणि | तुज प्रार्थितो मधुर वचनी | अंगीकार केलिया झणी | मज हातींचे न सोडावे || २३ ||
समुद्रे अंगीकारीला वडवानळ | तेणे अंतरी होतसे विहवळ | ऐसे असोनी सर्वकाळ | अंतरी साठविला तयाने || २४ ||
कूर्मे पृथ्वीचा घेतला भार | तेणे सोडीला नाही बडिवार | एवढा ब्रम्हांडगोळ थोर | त्याचा अंगीकार पै केला || २५ ||
शंकरे धरिले हाळाहळा | तेणे नीळवर्ण झाला गळा | परी त्यागिले नाही गोपाळा | भक्तवत्सला गोविंदा || २६ ||
माझ्या अपराधांच्या परी | वर्णिता शिणली वैखरी | दृष्ट पतीत दुराचारी | अधमाहुनि अधम || २७ ||
विषयासक्त मंदमति आळशी | कृपण कुव्यसनी मलिन मानसी | सदा सर्वकाळ सज्जनांशी | द्रोह करी सर्वदा || २८ ||
वचनोक्ति नाही मधुर | अत्यंत जनांसी निष्ठुर | सकळ पामरांमाजी पामर | व्यर्थ बडिवार जगी वाजे || २९ ||
काम क्रोध मद मत्सर | हे शरीर त्यांचे बिढार | कामकल्पनेसी थार | दृढ येथे केला असे || ३० ||
अठरा भार वनस्पतींची लेखणी | समुद्र भरला मषीकरुनी | माझे अवगुण लिहिता धरणी | तरी लिहिले न जाती || ३१ ||
ऐसा पतित मी खरा | परी तू पतितपावन शारद्गधरा | तुवा अंगीकार केलिया गदाधरा | कोण दोषगुण गणील || ३२ ||
नीच रतली रायाशी | तिसी कोण म्हणेल दासी | लोह लागता परिसासी | पूर्वास्थिती मग कैंची || ३३ ||
गावीचे होते लेंडवोहळ | गंगेसी मिळता गंगाजळ | कागविष्ठेचे झाले पिंपळ | तयांसी निद्य कोण म्हणे || ३४ ||
तसा कुजाति मी अमंगळ | परी तुझा म्हणवितो केवळ | कन्या देऊनिया कुळ | मग काय विचारावे || ३५ ||
जाणत असता अपराधी नर | तरी का केला अंगीकार | अंगीकारावरी अव्हेर | समर्थे न केला पाहिजे || ३६ ||
धाव पाव रें गोविंदा | हाती घेवोनिया गदा | करी माझ्या कर्माचा चेंदा | सच्चिदानंदा श्रीहरी || ३७ ||
तुझिया नामाची अपरिमित शक्ति | तेथें माझी पापे किती | कृपाळुवा लक्ष्मीपती | बरवे चित्ती विचारी || ३८ ||
तुझे नाम पतितपावन | तुझे नाम कलिमलदहन | तुझे नाम भवतारण | संकटनाशन नाम तुझे || ३९ ||
आता प्रार्थना ऐके कमळापती | तुझे नामी राहे माझी मती | हेचि मागतो पुढतपुढती | परंज्योती व्यंकटेशा || ४० ||
तू अनंत तुझी अनंत नामे | तयांमाजी अति सुगमे | ती मी अल्पमति प्रेमे | स्मरूनी प्रार्थना करीतसे || ४१ ||
श्रीव्यंकटेशा वासुदेवा | प्रद्युमन्ना अनंता केशवा | संकर्षणा श्रीधरा माधवा | नारायणा आदिमूर्ते || ४२ ||
पद्मनाभा दामोदरा | प्रकाशगहना परात्परा | आदिअनादि विश्वंभरा | जगदुद्धारा जगदीशा || ४३ ||
कृष्णा विष्णो हृषीकेशा | अनिरुद्धा पुरुषोत्तमा परेशा | नृसिंह वामन भार्गवेशा | बौद्ध कलंकी निजमूर्ती || ४४ ||
अनाथरक्षका आदिपुरुषा | पूर्णब्रम्ह सनातन निर्दोषा | सकळ मंगळ मंगळाधीशा | सज्जनजीवना सुखमूर्ते || ४५ ||
गुणातीता गुणज्ञा | निजबोधरूपा निमग्ना | शुद्ध सात्विका सुज्ञा | गुणप्राज्ञा परमेश्वरा || ४६ ||
श्रीनिधीश्रीवत्सलांछन धरा | भयकृद्भयनाशना गिरीधरा | दृष्टदैत्यसंहारकरा | वीर सुखकरा तू एक || ४७ ||
निखिल निरंजन निर्विकारा | विवेकखाणी- वैरागरा | मधुमुरदैत्यसंहारकरा | असुरमर्दना उग्रमुर्ते || ४८ ||
शंखचक्रगदाधरा | गरुडवाहना भक्तप्रियकरा | गोपीमनरंजना सुखकरा | अखंडित स्वभावे || ४९ ||
नानानाटक – सूत्रधारिया | जगद्व्यापका जगद्वर्या| कृपासमुद्रा करुणालया | मुनिजनध्येया मूळमूर्ति || ५० ||
शेषशयना सार्वभौमा | वैकुंठवासिया निरुपमा | भक्तकैवारिया गुणधामा | पाव आम्हां ये समयी || ५१ ||
ऐसी प्रार्थना करुनी देवीदास | अंतरी आठविला श्रीव्यंकटेश | स्मरता हृदयी प्रकटला ईश | त्या सुखासी पार नाही || ५२ ||
हृदयी आविर्भवली मूर्ति | त्या सुखाची अलोलिक स्थिती | आपुले आपण श्रीपती | वाचेहाती वदवीतसे || ५३ ||
ते स्वरूप अत्यंत सुंदर | श्रोती श्रवण कीजे सादर | सावळी तनु सुकुमार | कुंकुमाकार पादपद्मे || ५४ ||
सुरेख सरळ अंगोळिका | नखे जैसी चंद्ररेखा | घोटीव सुनीळ अपूर्व देखा | इंद्रनिळाचियेपरी || ५५ ||
चरणी वाळे घागरिया | वाकी वरत्या गुजरिया | सरळ सुंदर पोटरिया | कर्दळीस्तंभाचियेपरी || ५६ ||
गुडघे मांडिया जानुस्थळ | कटितटि किंकिणी विशाळ | खालते विश्वंउत्पत्तिस्थळ | वरी झळाळे सोनसळा || ५७ ||
कटीवरते नाभिस्थान | जेथोनि ब्रम्हा झाला उत्पन्न | उदरी त्रिवळी शोभे गहन | त्रैलोक्य संपूर्ण जयामाजी || ५८ ||
वक्ष:स्थळी शोभे पदक | पाहोनी चंद्रमा अधोमुख | वैजयंती करी लखलख | विद्युल्लतेचियेपरी || ५९ ||
हृदयी श्रीवत्सलांछन | भूषण मिरवी श्रीभगवान | तयावरते कंठस्थान | जयासी मुनिजन अवलोकिती || ६० ||
उभय बाहुदंड सरळ | नखे चंद्रापरीस तेजाळ | शोभती दोन्ही करकमळ | रातोत्पलाचियेपरी || ६१ ||
मनगटी विराजती कंकणे | बाहुवटी बाहुभूषणे | कंठी लेइली आभरणे | सूर्यकिरणे उगवली || ६२ ||
कंठावरुते मुखकमळ | हनुवटी अत्यंत सुनीळ | मुखचंद्रमा अति निर्मळ | भक्तस्नेहाळ गोविंदा || ६३ ||
दोन्ही अधरांमाजी दंतपंक्ती | जिव्हा जैसी लावण्यज्योती | अधरामृतप्राप्तीची गती | ते सुख जाणे लक्ष्मी || ६४ ||
सरळ सुंदर नासिक | जेथे पवनासी झाले सुख | गंडस्थळीचे तेज अधिक | लखलखीत दोन्ही भागी || ६५ ||
त्रिभुवनीचे तेज एकटवले | बरवेपण शिगेसी आले | दोन्ही पातयांनी धरिले | तेज नेत्र श्रीहरीचे || ६६ ||
व्यंकटा भृकुटिया सुनीळा | कर्णद्वयाची अभिनव लीळा | कुंडलांच्या फाकती कळा | तो सुखसोहळा अलोलिक || ६७ ||
भाळ विशाळ सुरेख | वरती शोभे कस्तूरीटिळक | केश कुरळ अलोलिक | मस्तकावरी शोभती || ६८ ||
मस्तकी मुकुट आणि किरीटी | सभोवती झिळमिळ्याची दाटी | त्यावरी मयूरपिच्छांची वेटी |ऐसा जगजेठी देखिला || ६९ ||
ऐसा तू देवाधिदेव | गुणातीत वासुदेव | माझिया भक्तिस्तव | सगुणरूप झालासी || ७० ||
आता करू तुझी पूजा | जगज्जीवना अधोक्षजा | आर्ष भावार्थ हा माझा | तुज अर्पण केला असे || ७१ ||
करुनी पंचामृतस्नान | शुद्धोधक वरी घालून | तुज करू मंगलस्नान | पुरुषसूक्ते करुनिया || ७२ ||
वस्त्रे आणि यज्ञोपवीत | तुजलागी करू प्रीत्यर्थ | गंधाक्षता पुष्पे बहुत | तुजलागी समर्पू || ७३ ||
धूप दीप नैवेध्य | फल तांबूल दक्षिणा शुद्ध | वस्त्रे भूषणे गोमेद | पद्मरागादिकरून || ७४ ||
भक्तवत्सला गोविंदा | ही पूजा अंगीकारावी परमानंदा | नमस्कारुनी पादारविंदा | मग प्रदक्षिणा आरंभिली || ७५ ||
ऐसा षोडशोपचारे भगवंत | यथाविधी पूजिला हृदयात | मग प्रार्थना आरंभिली बहुत | वरप्रसाद मागावया || ७६ ||
जयजयाजी श्रुतिशास्त्रआगमा | जयजयाजी गुणातीत परब्रम्हा | जयजयाजी हृदयवासिया रामा | जगदुद्धारा जगद्गुरो || ७७ ||
जयजयाजी पंकजाक्षा | जयजयाजी कमळाधीशा | जयजयाजी पूर्णपरेशा | अव्यक्तव्यक्ता सुखमूर्ते || ७८ ||
जयजयाजी भक्तरक्षका | जयजयाजी वैकुंठनायका | जयजयाजी जगपालका | भक्तांसी सखा तू एक || ७९ ||
जयजयाजी निरंजना | जयजयाजी परात्परगहना | जयजयाजी शुन्यातीत निर्गुणा | परिसावी विज्ञापना एक माझी || ८० ||
मजलागी देई ऐसा वर | जेणे घडेल परोपकार | हेचि मागणे साचार | वारंवार प्रार्थितसे || ८१ ||
हा ग्रंथ जो पठण करी | त्यासी दु:ख नसावे संसारी | पठणमात्रे चराचरी | विजयी करी जगाते || ८२ ||
लग्नार्थीयाचे व्हावे लग्न | धनार्थियासी व्हावे धन | पुत्रार्थियासे मनोरथ पूर्ण | पुत्र देऊनी करावे || ८३ ||
पुत्र विजयी आणि पंडित | शतायुषी भाग्यवंत | पितृसेवेसी अत्यंत रत | जायचे चित्त सर्वकाळ || ८४ ||
उदार आणि सर्वज्ञ | पुत्र देई भक्तांलागून | व्याधिष्ठांची पीडा हरण | तत्काळ कीजे गोविंदा || ८५ ||
क्षय अपस्मार कुष्ठादिरोग | ग्रंथपठणे सरावा भोग | योगाभ्यासियासी योग | पठणमात्रे साधावा || ८६ ||
दरिद्री व्हावा भाग्यवंत | शत्रूचा व्हावा नि:पात | सभा व्हावी वश समस्त | ग्रंथपठणेकरुनिया || ८७ ||
विद्यार्थीयासी विद्या व्हावी | युद्धी शस्त्रे न लागावी | पठणे जगात कीर्ती व्हावी | साधु साधु म्हणोनिया || ८८ ||
अंती व्हावे मोक्षसाधन | ऐसे प्रार्थनेसी दीजे मन | एवढे मागती वरदान | कृपानिधे गोविंदा || ८९ ||
प्रसन्न झाला व्यंकटरमण | देवीदासासी दिधले वरदान | ग्रंथाक्षरी माझे वचन | यथार्थ जाण निश्चयेसी || ९० ||
ग्रंथी धरोनी विश्वास | पठण करील रात्रंदिवस | त्यालागी मी जगदीश | क्षण एक न विसंबे || ९१ ||
इच्छा धरुनी करील पठण | त्याचे सांगतो मी प्रमाण | सर्व कामनेसी साधन | पठण एक मंडळ || ९२ ||
पुत्रार्थियाने तीन मास | धनार्थियाने एकवीस दिवस | कन्यार्थियाने षण्मास | ग्रंथ आदरे वाचवा || ९३ ||
क्षय अपस्मार कुष्ठादिरोग | इत्यादि साधने प्रयोग | त्यासी एक मंडळ सांग | पठणे करुनी कार्यसिद्धी || ९४ ||
हे वाक्य माझे नेमस्त | ऐसे बोलिला श्रीभगवंत | साच न मानी जयाचे चित्त | त्यासी अध:पात सत्य होय || ९५ ||
विश्वास धरील ग्रंथपठणी | त्यासी कृपा करील चक्रपाणी | वर दिधला कृपा करूनि | अनुभवे कळो येईल || ९६ ||
गजेंद्राचिया आकांतासी | कैसा पावला हृषीकेशी | प्रल्हादाचिया भावार्थासी | स्तंभातूनि प्रकटला || ९७ ||
वज्रासाठी गोविंदा | गोवर्धन परमानंदा | उचलोनिया स्वानंदकंदा | सुखी केलें तये वेळी || ९८ ||
वत्साचेपरी भक्तांसी | मोहे पान्हावे धेनु जैसी | मातेच्या स्नेहतुलनेसी | त्याचपरी घडलेसे || ९९ ||
ऐसा तू माझा दातार | भक्तासी घालिसी कृपेची पाखर | हा तयाचा निर्धार | अनाथनाथ नाम तुझे || १०० ||
श्री चैतन्यकृपा अलोकिक | संतोषोनी वैकुंठनायक | वर दिधला अलोकिक | जेणे सुख सकळांसी || १०१ ||
हा ग्रंथ लिहिता गोविंद | या वचनी न धरावा भेद | हृदयी वसे परमानंद | अनुभवसिद्ध सकळांसी || १०२ ||
या ग्रंथीचा इतिहास | भावे बोलिला विष्णुदास | आणिक न लागती सायास | पठणमात्रे कार्यसिद्धी || १०३ ||
पार्वतीस उपदेशी कैलासनायक | पूर्णानंद प्रेमसुख | त्याचा पार न जाणती ब्रम्हादिक | मुनि सुरवर विस्मित || १०४ ||
प्रत्यक्ष प्रकटेल वनमाळी | त्रैलोक्य भजत त्रिकाळी | ध्याती योगी आणि चंद्रमौळी | शेषाद्रीपर्वती उभा असे || १०५ ||
देवीदास विनवी श्रोतया चतुरा | प्रार्थनाशतक पठण करा | जावया मोक्षाचिया मंदिरा | काही न लागती सायास || १०६ ||
एकाग्रचित्ते एकांती | अनुष्ठान कीजे मध्यराती | बैसोनिया स्वस्थचित्ती | प्रत्यक्ष मूर्ति प्रकटेल || १०७ ||
तेथें देहभावासी नुरे ठाव | अवघा चतुर्भुज देव | त्याचे चरणी ठेवोनि भाव | वरप्रसाद मागावा || १०८ ||
इति श्री देवी दास विरचितं श्री व्यंकटेश स्तोत्रं संपूर्णम | श्री व्यंकटेशार्पणमस्तु ||